संस्मरण >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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एक जीवन्त पात्र रामरती को लेकर लिखा गया मार्मिक कथात्मक संस्मरण...
हे विदेशिनी! हम तुम्हें पहचानते हैं
गत वर्ष, पेरिस में उतरते ही, स्मृतिपटल पर एक धूमिल आकृति सजीव हो उठी थी।
सोचा था, पुराने पते के सूत्र से उन्हें ढूँढ़ ही लूँगी जिनसे मैंने ही नहीं,
शान्तिनिकेतन की अनेक छात्राओं ने जीवन की महत्त्वपूर्ण अभिज्ञताएँ बटोरी हैं।
किन्तु, दुर्भाग्यवश उस बार हवाई अड्डे तक ही पेरिस यात्रा स्थगित करनी पड़ी।
हमारे शास्त्रों ने गुरु का मौलिक अर्थ 'पिता' बतलाया है। इस दृष्टि से
मैदमोजेल क्रिस्टीना बौजनिक निश्चय ही आश्रम की जननी थीं। लम्बी-छरहरी देह,
सुनहले बालों का एकदम खाँटी शान्तिनिकेतनी ढीला जूड़ा, गहरी नीली आँखें, गम्भीर
मुखमुद्रा, खद्दर की पीली साड़ी पर चौड़ा काला पाड़, बिना बाँह के ब्लाउज से
निकली सुडौल बाँहें! गुरुदेव ने उनका नया नाम धरा था ‘वासंती'। शायद उनके इसी
प्रिय रंग के लगाव के कारण! दीदी गुरुदेव के आह्वान पर ही भारत आईं और फिर वहीं
की हो गईं। सुदीर्घ अवधि तक शान्तिनिकेतन के छात्रावास की वार्डन रहीं और अपने
कठोर अनुशासन से, आश्रम की दुःसाहसी छात्राओं के औद्धत्य को भी मुट्ठी में बाँध
रहीं।
मैंने नौ वर्षों में कभी भी उन्हें किसी को जोर से डपटते नहीं सुना। पर रौब ऐसा था कि श्रीभवन के जिस कमरे से गुजरतीं, लड़कियों को साँप सूंघ जाता। मजाल था, कोई लड़की रात्रि की हाजरी के बाद एक कदम तो बाहर रख दे। आश्रम में तब, आज के-से सुविधाजनक साधन नहीं थे, आश्रम का अपना जनरेटर था, नया बिजलीघर तब नहीं बना था, इसी से ठीक नौ बजे बत्ती बुझा दी जाती थी। इसके बाद, लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी में भी पढ़ना वर्जित था।
रात्रि प्रार्थना के बाद दीदी गुरुगंभीर स्वर में नित्य का फरमान नियमित रूप से घोषित करती, “मुझे आशा है कि आप ठीक नौ बजे सोकर सुबह चार बजे वैतालिक का घंटा सुनते ही बिस्तर छोड़ देंगी", लड़कियाँ भुनभुनाती“अजीब जल्लाद औरत है, परीक्षा के दिनों में भी रात-भर नहीं जागें तो पास कैसे होंगे?...” पर लाख भुनभुनाएँ किसी को भी उस आदेश की अवहेलना करने का साहस नहीं होता।
एक बार, एक लड़की ताराशंकर बाबू का तत्कालीन अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास 'कवि' ले आई। उसके मामा कलकत्ते से आए थे और इस शर्त पर उन्होंने उसे अपनी भानजी को दिया था कि पढ़कर उनके जाने से पूर्व उन्हें लौटा दे। उन्हें रविवार को जाना था और शनिवार को वह क्षीण कलेवरी उपन्यास हाथों ही हाथों में घूमते जब मेरे हाथ लगा तो रात के आठ बज चुके थे, सुबह पढ़कर मुझे लौटाना था, रात को कमरा बन्द कर छात्रावास की नौकरानी, खुदूबाला को चवन्नी घूस देकर, बड़ी चिरौरी कर मैंने उससे रात-भर के लिए लालटेन भाड़े पर ली। वह बोली, “दीदी मनि, बाघिनी देखले आमार चाकरी जाबे” (दीदी मनि, बाघिनी ने देख लिया तो मेरी नौकरी चली जाएगी) पाए पड़ी, धरा पड़ले आमार नामटा बलबेन ना।” (अगर तुम पकड़ी गईं तो पाँव पड़ती हूँ मेरा नाम मत लेना।)
उसे आश्वस्त कर मैंने विदा किया। फिर तीन-चार कुर्सियों को साड़ी की यवनिका से ढाँप-ट्रंप मैं पढ़ने बैठ गई। दीदी अपना राउंड लेकर, कमरे में जा चुकी थीं। पढ़ते-पढ़ते रात बीत गई। एक बार मेरे कमरे की छात्राओं ने सावधान भी किया, “आज के तोर मरन।" (आज तेरी मौत है) पर दीदी, निचली मंजिल में रहती थीं, उन्हें क्या पता कि मैं पढ़ रही हूँ।
अचानक टार्च की रोशनी मेरे चेहरे पर पड़ी, मैं हड़वड़ाकर उठी, सामने नाइट गाउन पहने दीदी खड़ी थीं। उनकी आँखों से जैसे लपटें निकल रही थीं। एक शब्द भी कहे बिना वह आगे बढ़ीं, मेरे हाथ से उपन्यास लिया, लालटेन उठाई और हाथ से इशारा किया कि मेरे साथ चलो, मुझे काटो तो खून नहीं-क्या करेंगी अब!।
अपने कमरे में ले जाकर, उन्होंने मुझे एक कोने में खड़ी कर दिया और अपने लिखने की मेज पर कुर्सी खींचकर बैठ गईं। बड़ी देर की मनहूस चुप्पी के बाद, उन्होंने आग्नेय दृष्टि से मुझे झुलसाकर उपन्यास उठाकर पूछा, “यह कौन-सी पुस्तक है?...” मैंने सिर झुका लिया, “एक उपन्यास दीदी...”
“तुम्हारे कोर्स की पुस्तक होती तो मैं तुम्हें केवल फाइन कर छोड़ देती, परीक्षा निकट है और तुम छात्रावास का नियम भंग कर उपन्यास पढ़ती हो।
खैर, इसका क्या दंड तुम्हें मिलना चाहिए-मैंने सोच लिया है। फिलहाल वैतालिक का घंटा बजने तक यहीं खड़ी रहो।” घंटा बजते ही मुझे मुक्ति मिल गई पर दीदी ने कहा, “प्रार्थना सभा में जाने के पहले यहाँ होकर जाना।"
मैं आई तो बोली, “पीठ मेरी ओर करके खड़ी हो।" मैं समझ गई कि अब चाबुक पड़ेगा। पर जो पड़ा उसकी मार चाबुक से भी अधिक दुर्वह थी। मैं उनकी ओर पीठ कर खड़ी हो गई, सर-सर काग़ज़ की सरसराहट हुई और दीदी ने मेरी पीठ पर काग़ज़ का एक पट्टा चिपका दिया। उस पर क्या लिखा है मैं यह नहीं जान पाई पर बाहर निकली, तो लड़कियाँ हँसने लगीं। एक ने फुसफुसाकर कहा, “लिखा है...इसने आश्रम का नियम भंग किया है।" मैं तब इंटर में थी। उस बचकाने दंड का अवांछनीय पट्टा पहन गुरुजनों एवं सहपाठियों के सम्मुख जाने में मेरी क्या अवस्था हुई थी, कह नहीं सकती। लड़कों ने तो तत्क्षण मेरा नवीन नामकरण भी कर दिया-'नियम भंगिनी'।
ताराशंकर बाबू के उस उपन्यास का ऐसा मूल्य शायद ही किसी पाठक ने चुकाया होगा। किन्तु बीमार पड़ने पर वही दीदी उदार स्नेहमयी जननी-सी बन जाती थीं। एक बार मेरी आँख के नीचे व्रण हो गया था। रात-रात भर मेरे सिरहाने बैठकर दीदी ने कई दिनों तक पुलटिस बाँधा। जितने दिन बीमार रही स्वयं अपने हाथों से नाश्ता बनाकर मुझे खिलाती रहीं।
छात्रावास का प्रत्येक कमरा झकाझक चमकता रहे, कहीं पर भी धूल न हो, न पलंग के नीचे चप्पलें रहें न जूते।
“मुझे भारत में एक चीज़ अखरती है," वह कहती थीं, “तुम लोगों में पलंग के नीचे कूड़ा-करकट खिसकाने की बहुत बुरी आदत होती है, चप्पलें हों या जूते खिसका दिए पलंग के नीचे और चट से पलंगपोश से ढंक दिया। यदि तुम एक दिन थोड़ी-सी मेहनत कर कमरे का ओना-कोना साफ कर लो तो दूसरे दिन उतनी ही कम मेहनत से कमरा साफ कर लोगी और धीरे-धीरे यह अभ्यास बन जाएगा। पलंग ऐसे बिछा हो कि चादर पर शिकन न हो, धीरे-धीरे यह आदत ऐसी पड़ जाएगी कि चादर की सामान्य-सी सिलवट भी तुम्हें चुभने लगेगी...देखो मेरी पिती (मेरी बच्ची),” बीच-बीच में अपना फ्रेंच संबोधन दुहराकर कहतीं, “मेरी माँ कहा करती थीं कि जो लड़की ढंग से बिस्तर लगाना सीख लेती है वह जीवन-भर अपना घर भी ढंग से सँजोना सीख लेती है। प्रत्येक लड़की को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिए-एक अपना बेडरूम स्वच्छ रखना, दूसरा बाथरूम।..."
श्रीभवन में स्वयं उनका कमरा हम सबके लिए ज्वलंत दृष्टांत था। मैंने उन्हें कभी खाली बैठे नहीं देखा। कभी क्रास स्टिच की कढाई लेकर बैठ जातीं, कभी टैटिंग की लेस! सप्ताह में चार दिन वह फ्रेंच क्लास लेतीं, यह फ्रेंच शिक्षा निःशुल्क रहती।
एक बार वह छुट्टियाँ बिताने बनारस गईं। वहाँ उनके दो फ्रेंच मित्र तब रीवाँ कोठी में रहते थे। उसी समय हम कुछ छात्र-छात्राएँ भी बनारस पर्यटन दल के साथ गए। दीदी ने हमें रात्रिभोज एवं नौकाविहार के लिए आमन्त्रित किया तो हमने दीदी का एक सर्वथा नवीन रूप देखा। मुझे आज भी उनके उस प्रासाद की अभिनव सज्जा नहीं भूलती। बड़े-बड़े फूलदान; शाही झाड़फानूस, दर्शनीय तैलचित्र और उन सबके बीच हमारे स्वागतार्थ खड़ी दीदी एक बार फिर मैदमोजेल बौजनिक बन गई थीं। नित्य बेरहमी से लपेटा गया जूड़ा उन्मुक्त कन्धों पर झूल रहा था, कंठ में मोतियों की दुलड़ी, हल्की धानी रेशमी गाउन पर बने लाल-लाल चेरीगुच्छ, हाथ में ड्रेगन बना सुवर्ण वलय।
नित्य उन्हें खद्दर की मोटी साड़ी में देखने की अभ्यस्त हमारी आँखें, उन्हें पहचान ही नहीं पा रही थीं। दीदी के मित्र, ज्याँ रेनुवा, उन दिनों के ख्यातिप्राप्त फिल्म निर्देशक थे। जिनकी 'रिवर' फिल्म की उन दिनों विशेष चर्चा थी। रात को उन्हीं के बजरे में हमने कितने ही घाट घूमे; दीदी थीं विदेशी वेशभूषा में किन्तु दीदी के दोनों मित्र दुग्ध धवल धोती और कुर्ते में थे। उसी घाट पर दोनों ने अपने गौर ललाट भी चंदन चर्चित करवाए। मेरे पास उनका वह चित्र आज भी धरा है, उसी दिन दीदी ने मुझे काले चमड़े में मढ़ा छोटा-सा बाइबिल दिया। उसके प्रथम पृष्ठ पर, उनके सुन्दर अक्षरों में लिखा था :
"इस आशा के साथ कि तुम जीवन में कभी भी कोई नियम भंग नहीं करोगी।”
उनकी वे पंक्तियाँ आज तक मेरी पाथेय बनी रही हैं। किन्तु, आश्रम में प्रत्यावर्तन के साथ वे एक बार फिर वही चाबुक घुमाती दीदी बन गईं। किन्तु आश्रमवास के अन्तिम दिन, उनके लिए सुखद नहीं रहे। गुरुदेव की मृत्यु के बाद, आश्रम जीवन में अनेक परिवर्तन होने लगे थे। नियमों में स्वयमेव शैथिल्य रेंग आया था। गुरुपल्ली में विभिन्न गुटों ने छात्र-छात्राओं में दरार डाल दी थी। बिहार से आई कुछ दबंग छात्राओं ने श्रीभवन के कठोर नियमों के विरुद्ध बगावत आरंभ कर दी थी, क्या जरूरी है कि रात नौ बजे अच्छी बच्चियों की तरह सो लिया जाए? लिपस्टिक भला क्यों न लगाएँ? रात की प्रार्थना के बाद टहलने निकल जाएँ तो कौन-सा आसमान ढह जाएगा आदि-आदि।
दीदी के सामने ही लड़कियाँ घूमने निकल जातीं, एक दुःसाहसी छात्रा ने तो एक दिन अपने जन्मदिन का आयोजन कर कुछ छात्रों को भी छात्रावास में आमन्त्रित कर दिया। दीदी तब तक बदलती समय धारा के साथ, कदम से कदम मिलाने की प्राणपण से चेष्टा कर रही थीं, किन्तु उस दिन उनके कदम भी डगमगा गए। वह छात्रा अफ्रीका के एक समृद्ध गुजराती परिवार की दुहिता थी। इसके पूर्व उसके नाम आए, एक छात्र के प्रेमपत्र दीदी पकड़ चुकी थीं। उनके अनुशासन ने न तब तक, अभिजात्य के सम्मुख घुटने टेके थे, न समृद्धि के, न सिफारिश के। उनके नियम सबके लिए एक-से थे चाहे वह पंडित नेहरू की पुत्री हो, अम्म् स्वामीनाथन की या कूचविहार की राजकन्या।
किन्तु सहसा सब उलट-पुलट हो गया। दीदी ने उस छात्रा को निष्कासन की कठोर चेतावनी दी। छात्राओं ने बगावत और तेज कर दी। धीरे-धीरे बात बढ़ती गई। दीदी से कहा गया, वह अपना आदेश वापस खींच लें, समय बदल गया है, आश्रम को भी बदलना होगा। दीदी ने उस मीटिंग में अपनी शान्त नील समुद्र-सी आँखें उठाकर क्या कहा, हम नहीं जान पाए। किन्तु इतना हम जान गए कि जीत अपराधिनी की ही हुई है। वह बनी रही। दीदी चली गईं।
गुरुदेव जीवित होते तो क्या उन्हें ऐसे जाने देते? गुरुदेव हों या नहीं, इतना हम सब जानते थे कि वह दीदी की पराजय नहीं, बहत बड़ी विजय थी। किन्तु जो सर्वस्वत्यागिनी विदेशिनी, अपना वैभव, देश त्यागकर, गुरुदेव के आह्वान पर आश्रम चली आई थीं, जिन्होंने हम छात्राओं को अपने जीवन एवं त्याग से नित्य प्रेरणा दी, उन्हें हमने क्या दिया? कैसी गुरुदक्षिणा दीअपमान, प्रवंचना और अवमानना। एक दिन, उन्होंने मेरा हाथ थामकर कहा था, “ईश्वर ने तुम्हें उदार करपुट दिया है इसलिए कि इसे भरकर जितना ग्रहण करो, उतना ही दूसरों को बाँट सको।"
दो वर्ष पूर्व दूतावास से पता चला था, वह जीवित हैं, यदि अब भी जीवित हों तो नब्बे वर्ष की होंगी, जी में आता है कि इस बार फिर पेरिस में उन्हें ढूँढ़ उनके कानों में रवीन्द्रनाथ की वही पंक्तियाँ गुनगुनाऊँ जो कभी उन्हें बहुत प्रिय थीं-
तोमाय चीनी गो चीनी
ओगो विदेशिनी
(हे विदेशिनी, हम तुम्हें पहचानते हैं)
मैंने नौ वर्षों में कभी भी उन्हें किसी को जोर से डपटते नहीं सुना। पर रौब ऐसा था कि श्रीभवन के जिस कमरे से गुजरतीं, लड़कियों को साँप सूंघ जाता। मजाल था, कोई लड़की रात्रि की हाजरी के बाद एक कदम तो बाहर रख दे। आश्रम में तब, आज के-से सुविधाजनक साधन नहीं थे, आश्रम का अपना जनरेटर था, नया बिजलीघर तब नहीं बना था, इसी से ठीक नौ बजे बत्ती बुझा दी जाती थी। इसके बाद, लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी में भी पढ़ना वर्जित था।
रात्रि प्रार्थना के बाद दीदी गुरुगंभीर स्वर में नित्य का फरमान नियमित रूप से घोषित करती, “मुझे आशा है कि आप ठीक नौ बजे सोकर सुबह चार बजे वैतालिक का घंटा सुनते ही बिस्तर छोड़ देंगी", लड़कियाँ भुनभुनाती“अजीब जल्लाद औरत है, परीक्षा के दिनों में भी रात-भर नहीं जागें तो पास कैसे होंगे?...” पर लाख भुनभुनाएँ किसी को भी उस आदेश की अवहेलना करने का साहस नहीं होता।
एक बार, एक लड़की ताराशंकर बाबू का तत्कालीन अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास 'कवि' ले आई। उसके मामा कलकत्ते से आए थे और इस शर्त पर उन्होंने उसे अपनी भानजी को दिया था कि पढ़कर उनके जाने से पूर्व उन्हें लौटा दे। उन्हें रविवार को जाना था और शनिवार को वह क्षीण कलेवरी उपन्यास हाथों ही हाथों में घूमते जब मेरे हाथ लगा तो रात के आठ बज चुके थे, सुबह पढ़कर मुझे लौटाना था, रात को कमरा बन्द कर छात्रावास की नौकरानी, खुदूबाला को चवन्नी घूस देकर, बड़ी चिरौरी कर मैंने उससे रात-भर के लिए लालटेन भाड़े पर ली। वह बोली, “दीदी मनि, बाघिनी देखले आमार चाकरी जाबे” (दीदी मनि, बाघिनी ने देख लिया तो मेरी नौकरी चली जाएगी) पाए पड़ी, धरा पड़ले आमार नामटा बलबेन ना।” (अगर तुम पकड़ी गईं तो पाँव पड़ती हूँ मेरा नाम मत लेना।)
उसे आश्वस्त कर मैंने विदा किया। फिर तीन-चार कुर्सियों को साड़ी की यवनिका से ढाँप-ट्रंप मैं पढ़ने बैठ गई। दीदी अपना राउंड लेकर, कमरे में जा चुकी थीं। पढ़ते-पढ़ते रात बीत गई। एक बार मेरे कमरे की छात्राओं ने सावधान भी किया, “आज के तोर मरन।" (आज तेरी मौत है) पर दीदी, निचली मंजिल में रहती थीं, उन्हें क्या पता कि मैं पढ़ रही हूँ।
अचानक टार्च की रोशनी मेरे चेहरे पर पड़ी, मैं हड़वड़ाकर उठी, सामने नाइट गाउन पहने दीदी खड़ी थीं। उनकी आँखों से जैसे लपटें निकल रही थीं। एक शब्द भी कहे बिना वह आगे बढ़ीं, मेरे हाथ से उपन्यास लिया, लालटेन उठाई और हाथ से इशारा किया कि मेरे साथ चलो, मुझे काटो तो खून नहीं-क्या करेंगी अब!।
अपने कमरे में ले जाकर, उन्होंने मुझे एक कोने में खड़ी कर दिया और अपने लिखने की मेज पर कुर्सी खींचकर बैठ गईं। बड़ी देर की मनहूस चुप्पी के बाद, उन्होंने आग्नेय दृष्टि से मुझे झुलसाकर उपन्यास उठाकर पूछा, “यह कौन-सी पुस्तक है?...” मैंने सिर झुका लिया, “एक उपन्यास दीदी...”
“तुम्हारे कोर्स की पुस्तक होती तो मैं तुम्हें केवल फाइन कर छोड़ देती, परीक्षा निकट है और तुम छात्रावास का नियम भंग कर उपन्यास पढ़ती हो।
खैर, इसका क्या दंड तुम्हें मिलना चाहिए-मैंने सोच लिया है। फिलहाल वैतालिक का घंटा बजने तक यहीं खड़ी रहो।” घंटा बजते ही मुझे मुक्ति मिल गई पर दीदी ने कहा, “प्रार्थना सभा में जाने के पहले यहाँ होकर जाना।"
मैं आई तो बोली, “पीठ मेरी ओर करके खड़ी हो।" मैं समझ गई कि अब चाबुक पड़ेगा। पर जो पड़ा उसकी मार चाबुक से भी अधिक दुर्वह थी। मैं उनकी ओर पीठ कर खड़ी हो गई, सर-सर काग़ज़ की सरसराहट हुई और दीदी ने मेरी पीठ पर काग़ज़ का एक पट्टा चिपका दिया। उस पर क्या लिखा है मैं यह नहीं जान पाई पर बाहर निकली, तो लड़कियाँ हँसने लगीं। एक ने फुसफुसाकर कहा, “लिखा है...इसने आश्रम का नियम भंग किया है।" मैं तब इंटर में थी। उस बचकाने दंड का अवांछनीय पट्टा पहन गुरुजनों एवं सहपाठियों के सम्मुख जाने में मेरी क्या अवस्था हुई थी, कह नहीं सकती। लड़कों ने तो तत्क्षण मेरा नवीन नामकरण भी कर दिया-'नियम भंगिनी'।
ताराशंकर बाबू के उस उपन्यास का ऐसा मूल्य शायद ही किसी पाठक ने चुकाया होगा। किन्तु बीमार पड़ने पर वही दीदी उदार स्नेहमयी जननी-सी बन जाती थीं। एक बार मेरी आँख के नीचे व्रण हो गया था। रात-रात भर मेरे सिरहाने बैठकर दीदी ने कई दिनों तक पुलटिस बाँधा। जितने दिन बीमार रही स्वयं अपने हाथों से नाश्ता बनाकर मुझे खिलाती रहीं।
छात्रावास का प्रत्येक कमरा झकाझक चमकता रहे, कहीं पर भी धूल न हो, न पलंग के नीचे चप्पलें रहें न जूते।
“मुझे भारत में एक चीज़ अखरती है," वह कहती थीं, “तुम लोगों में पलंग के नीचे कूड़ा-करकट खिसकाने की बहुत बुरी आदत होती है, चप्पलें हों या जूते खिसका दिए पलंग के नीचे और चट से पलंगपोश से ढंक दिया। यदि तुम एक दिन थोड़ी-सी मेहनत कर कमरे का ओना-कोना साफ कर लो तो दूसरे दिन उतनी ही कम मेहनत से कमरा साफ कर लोगी और धीरे-धीरे यह अभ्यास बन जाएगा। पलंग ऐसे बिछा हो कि चादर पर शिकन न हो, धीरे-धीरे यह आदत ऐसी पड़ जाएगी कि चादर की सामान्य-सी सिलवट भी तुम्हें चुभने लगेगी...देखो मेरी पिती (मेरी बच्ची),” बीच-बीच में अपना फ्रेंच संबोधन दुहराकर कहतीं, “मेरी माँ कहा करती थीं कि जो लड़की ढंग से बिस्तर लगाना सीख लेती है वह जीवन-भर अपना घर भी ढंग से सँजोना सीख लेती है। प्रत्येक लड़की को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिए-एक अपना बेडरूम स्वच्छ रखना, दूसरा बाथरूम।..."
श्रीभवन में स्वयं उनका कमरा हम सबके लिए ज्वलंत दृष्टांत था। मैंने उन्हें कभी खाली बैठे नहीं देखा। कभी क्रास स्टिच की कढाई लेकर बैठ जातीं, कभी टैटिंग की लेस! सप्ताह में चार दिन वह फ्रेंच क्लास लेतीं, यह फ्रेंच शिक्षा निःशुल्क रहती।
एक बार वह छुट्टियाँ बिताने बनारस गईं। वहाँ उनके दो फ्रेंच मित्र तब रीवाँ कोठी में रहते थे। उसी समय हम कुछ छात्र-छात्राएँ भी बनारस पर्यटन दल के साथ गए। दीदी ने हमें रात्रिभोज एवं नौकाविहार के लिए आमन्त्रित किया तो हमने दीदी का एक सर्वथा नवीन रूप देखा। मुझे आज भी उनके उस प्रासाद की अभिनव सज्जा नहीं भूलती। बड़े-बड़े फूलदान; शाही झाड़फानूस, दर्शनीय तैलचित्र और उन सबके बीच हमारे स्वागतार्थ खड़ी दीदी एक बार फिर मैदमोजेल बौजनिक बन गई थीं। नित्य बेरहमी से लपेटा गया जूड़ा उन्मुक्त कन्धों पर झूल रहा था, कंठ में मोतियों की दुलड़ी, हल्की धानी रेशमी गाउन पर बने लाल-लाल चेरीगुच्छ, हाथ में ड्रेगन बना सुवर्ण वलय।
नित्य उन्हें खद्दर की मोटी साड़ी में देखने की अभ्यस्त हमारी आँखें, उन्हें पहचान ही नहीं पा रही थीं। दीदी के मित्र, ज्याँ रेनुवा, उन दिनों के ख्यातिप्राप्त फिल्म निर्देशक थे। जिनकी 'रिवर' फिल्म की उन दिनों विशेष चर्चा थी। रात को उन्हीं के बजरे में हमने कितने ही घाट घूमे; दीदी थीं विदेशी वेशभूषा में किन्तु दीदी के दोनों मित्र दुग्ध धवल धोती और कुर्ते में थे। उसी घाट पर दोनों ने अपने गौर ललाट भी चंदन चर्चित करवाए। मेरे पास उनका वह चित्र आज भी धरा है, उसी दिन दीदी ने मुझे काले चमड़े में मढ़ा छोटा-सा बाइबिल दिया। उसके प्रथम पृष्ठ पर, उनके सुन्दर अक्षरों में लिखा था :
"इस आशा के साथ कि तुम जीवन में कभी भी कोई नियम भंग नहीं करोगी।”
उनकी वे पंक्तियाँ आज तक मेरी पाथेय बनी रही हैं। किन्तु, आश्रम में प्रत्यावर्तन के साथ वे एक बार फिर वही चाबुक घुमाती दीदी बन गईं। किन्तु आश्रमवास के अन्तिम दिन, उनके लिए सुखद नहीं रहे। गुरुदेव की मृत्यु के बाद, आश्रम जीवन में अनेक परिवर्तन होने लगे थे। नियमों में स्वयमेव शैथिल्य रेंग आया था। गुरुपल्ली में विभिन्न गुटों ने छात्र-छात्राओं में दरार डाल दी थी। बिहार से आई कुछ दबंग छात्राओं ने श्रीभवन के कठोर नियमों के विरुद्ध बगावत आरंभ कर दी थी, क्या जरूरी है कि रात नौ बजे अच्छी बच्चियों की तरह सो लिया जाए? लिपस्टिक भला क्यों न लगाएँ? रात की प्रार्थना के बाद टहलने निकल जाएँ तो कौन-सा आसमान ढह जाएगा आदि-आदि।
दीदी के सामने ही लड़कियाँ घूमने निकल जातीं, एक दुःसाहसी छात्रा ने तो एक दिन अपने जन्मदिन का आयोजन कर कुछ छात्रों को भी छात्रावास में आमन्त्रित कर दिया। दीदी तब तक बदलती समय धारा के साथ, कदम से कदम मिलाने की प्राणपण से चेष्टा कर रही थीं, किन्तु उस दिन उनके कदम भी डगमगा गए। वह छात्रा अफ्रीका के एक समृद्ध गुजराती परिवार की दुहिता थी। इसके पूर्व उसके नाम आए, एक छात्र के प्रेमपत्र दीदी पकड़ चुकी थीं। उनके अनुशासन ने न तब तक, अभिजात्य के सम्मुख घुटने टेके थे, न समृद्धि के, न सिफारिश के। उनके नियम सबके लिए एक-से थे चाहे वह पंडित नेहरू की पुत्री हो, अम्म् स्वामीनाथन की या कूचविहार की राजकन्या।
किन्तु सहसा सब उलट-पुलट हो गया। दीदी ने उस छात्रा को निष्कासन की कठोर चेतावनी दी। छात्राओं ने बगावत और तेज कर दी। धीरे-धीरे बात बढ़ती गई। दीदी से कहा गया, वह अपना आदेश वापस खींच लें, समय बदल गया है, आश्रम को भी बदलना होगा। दीदी ने उस मीटिंग में अपनी शान्त नील समुद्र-सी आँखें उठाकर क्या कहा, हम नहीं जान पाए। किन्तु इतना हम जान गए कि जीत अपराधिनी की ही हुई है। वह बनी रही। दीदी चली गईं।
गुरुदेव जीवित होते तो क्या उन्हें ऐसे जाने देते? गुरुदेव हों या नहीं, इतना हम सब जानते थे कि वह दीदी की पराजय नहीं, बहत बड़ी विजय थी। किन्तु जो सर्वस्वत्यागिनी विदेशिनी, अपना वैभव, देश त्यागकर, गुरुदेव के आह्वान पर आश्रम चली आई थीं, जिन्होंने हम छात्राओं को अपने जीवन एवं त्याग से नित्य प्रेरणा दी, उन्हें हमने क्या दिया? कैसी गुरुदक्षिणा दीअपमान, प्रवंचना और अवमानना। एक दिन, उन्होंने मेरा हाथ थामकर कहा था, “ईश्वर ने तुम्हें उदार करपुट दिया है इसलिए कि इसे भरकर जितना ग्रहण करो, उतना ही दूसरों को बाँट सको।"
दो वर्ष पूर्व दूतावास से पता चला था, वह जीवित हैं, यदि अब भी जीवित हों तो नब्बे वर्ष की होंगी, जी में आता है कि इस बार फिर पेरिस में उन्हें ढूँढ़ उनके कानों में रवीन्द्रनाथ की वही पंक्तियाँ गुनगुनाऊँ जो कभी उन्हें बहुत प्रिय थीं-
तोमाय चीनी गो चीनी
ओगो विदेशिनी
(हे विदेशिनी, हम तुम्हें पहचानते हैं)
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